मुक्ति

 


ह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः

"काफी जटिलता से मिलनेवाल मनुष्य जन्म का  उपयोग परम लक्ष्य को पाने  में नहीं करनेवालों को  घोर संकटों का सामना करना पड़ेगा।"     ……… ………. केनोपनिषद्-२ .५ 

मनुष्य जन्म को दिव्य कर्म का अनुष्ठान करने के लिए होता है; उस दिव्य कर्म के माध्यम से ही जीवन को सार्थक बनाया जाता है ; इस उद्देश्य से विमुख होकर कर्तव्य पथ से अलग हो जाने का कोई अवसर मनुष्य क शायद ही मिल पाटा हो; ऐसे पलायन क शायद ही उचित समझा जाय।

            भगवद्प्राप्ति का प्रयास नहीं करनेवालों को अनंत अनंत जन्म के चक्र में से गुजरना होगा; मुक्ति शायद ही मिले।[1] संकलहीन मनुष्य की बुद्धि अनंत अनंत शाखांवाली होती है। वैसे साधक अनंत अनंत कर्मों का विस्तार भी कर लेते हैं। [2] मानव  जन्म जीव जगत के विवर्तन की धरा में एक प्रमुख पाडाव है; महत उद्देश्य के निमित्त से जगदीश्वर इस व्यवस्था को रूपायित करते रहे।  जीव को दिव्य कर्म में लगाने के लिए; जीव जगत के कल्याण साधित करने के लिए; पारितंत्र में संतुलन बनाये रखने के लिए और जगदीश्वर के स्वरुप को ठीक से समझने के लिए दिव्य जन्म की रूपरेखा बनती रही।  उस निमित्त से अगर चर्चा करते रहें तो पायंगे कि प्रत्येक जन्म और कर्म की रूपरेखा के पीछे ईश्वर कुछ विशेष उद्देश्य रखते हैं; उनके सभी योजनाओं में मनुष्य अंशभागि बने यह भी कांक्षित रहता है। भले  ही हम महत्तम के उस महान योजना को समझ पाते हों या नहीं, पर सार्विक कल्याण के लिए उनका पहल जारी है।  मनुष्य के बुद्धिमत्ता और रचनाधर्मिता के कारण जगदीश्वर मनुष्य को लेकर आशावादी रहते हैं और उनके ऐसा करने के पीछे उन्हीं के सृजन तंत्र की विशेषता का मानक रहता है।

            जगदीश्वर यह भी चाहेंगे कि जीवात्मा आध्यात्मिक चेतना विकसित  करते करते अंततः परमेश्वर के दिव्य स्वरुप में ही स्वरूपस्थ हो जाएँ। मानव जन्म के दिव्य उद्देश्य और जगदीश्वर द्वारा नियोजित दिव्य योजना को समझ पाना सरल तो माना गया पर उतना भी सरल नहीं माना गया।  हमें उनकी योजना के अनुसार ही कर्तव्य पथ पर लगे रहना होगा और जय- पराजय, लाभ - हानि, सुख - दुःख आदि विषयों को जगदीश्वर के अधीन छोड़कर चिंतामुक्त होकर कर्तव्य पालन में लगे रहना होगा। लोगों को कभी कभी हम ऐसा कहते हुए पाते हैं की संत शरीर चढ़ दिए, संसार जीवन से मुक्त हो गए, उन्हें मुक्ति मिल गई; मरीज को पीड़ा से मुक्ति मिल गई; साहब को जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया।  हर स्थान पर व्यवहार में आनेवाला मुक्ति नामक शब्द भले   ही किसी एक तत्व की ओर निर्देशित न हो पाते हों, पर मुक्ति का कोई विशेष मार्ग है जिसके जरिये जीवात्मा को जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त कर दिया जाता है -- इस बारे में हमारी एक समझ जरूर बनेगी।  शरीर को नश्वर भए ही मानें पर आत्मा को अविनश्वर माना गया।[3]  संसार को असत और अस्थायी कहा गया; मिथ्या नहीं कहा गया। [4]

 

       आत्मा ह्रदय के आसपास जरूर व्याप्त रहती हूँ ार चेतना (आत्मा का लक्षण होते हुए ) पूरे शरीर में व्याप्त     रहेगी।[5]  चंदन का लेप करने से पूरा शरीर शीतल हो जाता है उसी प्रकार आत्मा हृदय के सन्निकट रहते हुए भी  पूरे शरीर में अपनी चेतन शक्ति को प्रसारित करती रहती है; यही उसका स्वरुप है। [6]

रही समर्पित कर देने की बात तो जगदीश्वर भी उत्तम भक्त के पास खुद को समर्पित कर देते हैं। जिस प्रकार से श्री हनुमानजी रघुनायकजी की सेवा में आगे रहे उसके निमित्त से जगदीश्वर खुद को ऋणी मान रहे थे और खुद को हनुमानजी के हाथ में सौंप देने के लिए भी मन बना लिए । [7] पुष्प खिलते ही  उद्यान फूलों की सुगंध से सुगंधित हो जाता है; यह पुष्प का ही गुणधर्म समझा गया।[8] जन्म, मृत्यु, पीड़ा आदि की बात को स्वप्नावस्था में पनपनेवाली भावना ही समझनी चाहिए; स्वप्नावस्था टूटते ही भावनाएं   द्रवित हो जायेगी। [9] आत्मा जन्म, मृत्यु, प्रकट, अप्रकट आदि से परे होते हुए अजन्मा , अविनाशी और चिरनूतन है। [10] इसे आनन्दमय, अजन्मा अविनाशी, वृद्धावस्था से मुक्त, अमर और भय मुक्त  माना गया। [11]

धनुर्धर को आत्मा, शरीर और माया के बारे में बताते हुए जगदीश्वर जन्म, मृत्यु और नियति के बारे में बताते रहे; आत्मा के अविनश्वर और अजन्मा होने की बात भी कही गई।  देहत्याग, देह परिवर्तन, नए शरीर में आत्मा का संचार इन सभी क्रियाओं को मनुष्य के कपडे बदलने जैसा कार्य बताया गया; पुराने शरीर का त्याग और नए शरीर में संचार ये आत्मा का सहजात और नैसर्गिक क्रिया मानी गई; मान्यता यह भी बनी कि आत्मा का स्वरुप परमात्मा के जैसा ही है।[12] आत्मा के संचार और अभिव्यक्त होने का विषय और स्पष्ट रूप से परिलक्षित किया जाएगा जब हम एक शिशु के उन आचरणों को देखें जिस समय बिना किसी ख़ास कारण रहते हुए हुए भी उसे मुस्कुराता हुआ, उदास रहता हुआ, ख़ुशी व्यक्त करता हुआ पाया जाय। [13]

            अविनश्वरता का विज्ञान आत्मा के स्वरुप को बताने के लिए संदर्भित किया गया।  नित्य और अनित्य के सम्मलेन से ही जीव दृश्य जगत में जीवन निर्वाह करने के लिए विवश    रहता है; जीव जगत में उसकी एक भूमिका भी बन जाती है; उसी निमित्त से उसे फिर से जीवन, जरा, बुढ़ापा, मृत्यु आदि चक्र से गुजरना पड़ता है; मृत्यु के समय शरीर का नाश भले ही नैसर्गिक नियमों  के कारण होता होगा ओर आत्मा का विघटन नहीं हो पायेगा; आत्मा को तो फिर से परम सत्ता में विलीन हो जाना होगा और फिर किसी अन्य शरीर के सृजन के समय जब प्राण प्रतिष्ठा   होगी तब फिर से आत्मा का संचार होगा और जीव को जन्म लेना होगा।  यह एक निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है जिसे निसर्ग के नियमों के अधीन ही होते रहना है।

            प्रकृति में आत्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म माना गया; मन से भी सूक्ष्म, यहॉँ तक कि बुद्धि से भी सूक्ष्म। इन्द्रियों के विषय इन्द्रियों से परे रहेंगे; उन उद्दीपनों से भी सूक्ष्म मन; और अधिक सूक्ष्म बुद्धि और सबसे सूक्ष्म आत्मा को समझा गया। [14]

कर्म भी सकाम और अकाम होते होंगे; उसी के अनुसार भोग वृत्ति की रचना भी होती होगी; अंततः नियति का ही नियंत्रण रहता है जिसके कारण जीव का जन्म और मृत्यु का विधान बनता है; इस नियति के कारण ही व्यक्ति का जन्म और मृत्यु का मुहूर्त भी बन जाता है।  कभी कभी उस नियति का विधान ऐसा भी बन जाता है जब नियति के विधान को किसी भी अवस्था में खंडित नहीं किया जा सकता। अन्य जीव को मृत्यु के कराल ग्रास में जकड़े जाते समय उसे देखनेवाले मनुष्य खुद के मृत्यु के बारे में सोच विचार नहीं कर पाते।  गतिविधियां भी ऐसी करते हैं जैसे उन्हें हमेशा के लिए इस संसार में रहना है। [15] जन्म के पहले और मृत्यु के बाद आत्मा अव्यक्त ही रहता है; उस आत्मा के स्थानांतरण के लिए शोक करना भी कदापि समीचीन न होगा; इस कारण से भी योद्धा को किसी के मारे जाने के कारण शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं ।

किसी भी शरीर से आत्मा का वियोग हो जाने से व्यक्ति को शोक नहीं करना चाहिए; आत्मा के वियोग, उसके अविनश्वर होने की बात, उसके पुनः अन्य किसी शरीर में संचार होने की क्रिया की बात सहज ही अनुभव किया जाता होगा ओर परिजनों को शोकातुर होते हुए हम देखते आये; यहॉँ तक कि सम्यक ज्ञान होने के बाद भी योद्धा को यद्ध भूमि के बीच में आकर परिजनों, पितामह और गुरुजनों के मारे जाने के कारण शोकातुर होते हुए देखा गया।  उसके पास श्री हरि सारथी के रूप में थे, फिर भी उसे प्रमाद, विरह और शोक में निमज्जित होते हुए देखा गया। [16]  आत्मा के अविनश्वरता का विषय समझ पाना उतना भी सरल नहीं है; अगर सौभाग्यवश गुरु का आशीर्वाद मिल भी जाय तो आत्मा के अविनश्वरता और परमात्मा से सन्निधि का विषय समझ पाना कठिन ही समझा गया। ऐसे साधकों की संख्या भी बहुत कम है जिन्हें आत्मा का विषय समझ में आता हो।[17]

वैदिक मान्यता के आधार पर स्वधर्म के दो पर्याय माने गए: पराधर्म अर्थात आध्यात्मिक कर्त्तव्य और अपरा धर्म अर्थात लौकिक कर्त्तव्य।  युद्ध करने का अवसर मिलाना, वो भी धर्म रक्षा के निमित्त से, एक क्षत्रिय   का सौभाग्य मान लेना चाहिए।  ऐसा करने के कारण योद्धा के लिए स्वर्ग के द्वार भी खुल जाएंगे।  युद्ध करना   ही एक क्षत्रिय   का स्वधर्म माना गया; इस निमित्त से प्रजा की रक्षा और धर्म की प्रतिष्ठा के लिए भी अवसर मिलेगा।  उस परिस्थिति में कर्तव्य पथ से हट जाने को कायरता मानी जायेगी।[18] प्रजा पालन करने के लिए और व्यवस्था बनाये रखने के लिए अगर हिंसा का सहारा भी लेना पड़े तो क्षत्रिय को पीछे न हटते हुए प्रजा की  रक्षा करनी चाहिए; यही योद्धा का स्वधर्म भी माना गया। [19]

युद्ध भूमि छोड़कर भागनेवालों को लोग कायर, नपुंशक और भय से ग्रसित मानेंगे; किसी को प्रमाद और विषाद का कारण सही प्रकार से समझ में नहीं आएगा; यह सोचते हुए भी सव्यसाची को युद्ध भूमि के बीच में खड़ा होकर डटकर शत्रु का मुकाबला करना चाहिए। योद्धा के शोक का प्रत्यक्ष कारण के रूप में गुरु और पितामह का प्रतिपक्ष में खड़ा होने के विषय को समझा गया।  परोक्ष कारण के रूप में उस मोह और माया को समझा गया जिसके कारण योद्धा ने शत्रु के सैनिकों और परिजनों को मारे जाने के लिए खुद को निमित्त कारण मान लिया।  वस्तुतः जीव को जन्म देने और मृत्यु देने का विधान एक नैसर्गिक नियम के अधीन एक सहजात क्रिया समझना होगा; पर अर्जुन का मन व्यर्थ ही शोक से द्रवित हो रहा था। युद्ध भूमि के बीच में खड़ा होकर पाप-पुण्य, जय-पराजय, भला-बुरा आदि का विचार करना समीचीन न होगा; एक योद्धा को ऐसा करना शोभा भी नहीं देता; और न ही उससे ऐसे व्यवहार की आशा रखना उचित होगा; संभावना यही हो सकेगी कि युद्ध भूमि में धर्म रक्षा के निमित्त से योद्धा अपनी भूमिका में खरा उतरे।

 



[1] इह चेदशकद् बोद्धं प्राक् शरीरस्य विस्त्रसः।

ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।।  …. कठोपनिषद्-२ .३ .४.

[2] श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय २ श्लोक ४१

[3] भोता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् ।।(श्वेताश्वतरोपनिषद्-१ .१२ )

क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः। श्वेताश्वतरोपनिषद्-१ .१०

संयुक्तमेतत्क्षरमक्षरं च व्यताव्यक्तं भरते विश्वमीशः। श्वेताश्वतरोपनिषद्-१ .०८ 

" भगवान, जीवात्मा और माया तीनों नित्य तत्त्व हैं। भगवान सत् (शाश्वत तत्त्व) हैं; वेदों में भगवान को सत्-चित्-आनन्द (नित्य-सर्वज्ञ-आनंद का महासागर) कहा गया;  आत्मा अनश्वर और सत् है; शरीर असत् (अस्थायी)  है;  अणु रूप आत्मा भी सत्-चित्-आनन्द है;" 

[4] सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत स तपस्तप्त्वा

इद्गं सर्वमसृजत यदिदं किं च। तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्।

तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्चाभवत्। निरुतं चानिरुतं च। निलयनं

चानिलयनं च। विज्ञानं चाविज्ञानं च। सत्यं चानृतं चा सत्यमभवत्।

यदिदं किं च। तत्सत्यमित्याचक्षते। तदप्येष श्लोको भवति।

"भगवान केवल सृष्टि का सृजन नहीं करते बल्कि स्वयं प्रत्येक कण  में व्याप्त हो जाते हैं; अपना सहावस्थान बनाये रखते हुए दृश्य जगत का सृजन कर देते हैं। " ……….. तैत्तिरीयोपनिषद्-२ .६ .४

[5] हृदि ह्येष आत्मा । (प्रश्नोपनिषद्-3.6)

स वा एष आत्मा हृदि। (छान्दोग्योपनिषद-८ .३ .३ )

[6] अविरोधश्चन्दनवत् ।। (ब्रह्मसूत्र-2.3.24)

[7] एकैकस्योपकारस्य प्राणान् दास्यास्मि ते कपे।

शेषस्येहोपकाराणां भवाम् ऋणिनो वयं ।।  ……. (वाल्मिकी रामायण)

[8] व्यतिरेको गन्धवत्। …………ब्रह्मसूत्र-२ .३ .२७

[9] जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई।।

……………….. श्रीरामचरितमानस

[10] न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

………….. कठोपनिषद्-१ .२ .१८

[11] स वा एष महानज आत्माजरोऽमरोऽमृतोऽभयो 

……………. बृहदारण्यकोपनिषद्-४.४.२५

[12] वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्वाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥

…………………  श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय २ श्लोक २२

[13] जातस्य हर्षभयशोक सम्प्रतिपत्तेः।।

"शिशु कभी कभी  बिना किसी स्पष्ट कारण के प्रसन्न, कभी उदास और कभी भयभीत दिखाई देगा। " ………. न्यायशास्त्र-३ .१ .१८;

[14] इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।

मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः।। ………… कठोपनिषद्-१ .३ .१०

[15] अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।

शेषाः स्थिरत्वम् इच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ।। (महाभारत)

"प्रतिक्षण मृत्यु के सत्य को देखते हुए भी मनुष्य सचेत नहीं होते और वे यह नहीं सोचते कि एक दिन उन्हें भी मरना है।"

[16] यन्मन्यसे ध्रुवं लोकमध्रुवं वा न चोभयम् ।

सर्वथा न हि शोच्यास्ते स्नेहादन्यत्र मोहजात्।। (श्रीमद्भागवतम्-१ .१३ .४३ )

"यदि तुम  स्वयं को अविनाशी आत्मा या नश्वर शरीर मानते हो तब किसी प्रकार का शोक नहीं करना चाहिए।"

[17] श्रवणायापि बहुभियर्यो न लभ्यः श्रृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।

आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः।।

……………. कठोपनिषद्-१ .२ .७

[18] श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय २ श्लोक ३२

[19] क्षत्रियोः हि प्रजा रक्षन्शस्त्रपाणिः प्रदण्डवान्।

निर्जित्यपरसैन्यादि क्षितिमं धर्मेणपालयेत् ।।  ……… पराशर स्मृति-१ .६१

Qualification of a Devotee

  “Two kinds of steadfastness in this world were materialised in this world: through the Yoga of Knowledge for the men of realization; throu...